आयुर्वेद – शास्त्र जिसमे यह बताया गया है की हमारे शरीर के लिए – क्या हितकर हैं ?
-क्या अहितकर हैं ?
– क्या सुखकर हैं ?
– क्या दुखकर हैं ?
सभी प्राणियों के स्वास्थ्य को सही बनाये रखना एवं रोगी को रोग से मुक्ति का भाव ही ‘आयुर्वेद’ हैं।
इसमें दो तरह की चिकित्सा हैं । 1.शमन चिकित्सा 2. शोधन चिकित्सा
चिकित्सा की सफलता रोगी के परहेज से रहने पर निर्भर करती है। यही कारण हैं की आधुनिक चिकित्सा में रोगो को सिर्फ दबाने का कार्य किया जा रहा हैं। अपितु आयुर्वेद में रोग के उत्पन होने के कारण का पता लगाकर तदनुसार चिकित्सा व्यवस्था की जाती हैं ताकि रोग पुन : उत्पन्न ही न हो। जैसे की आज हर रोग असाध्य होकर भयानक रूप धारण करता जा रहा है।
आयुर्वेद में दोष एवं दुष्य की बात होती हैं। वैद्य खुद अपनी औषधि का निर्माण खुद करता हैं साथ ही रोगी की प्रकृति ,काल एवं बलानुसार औषधि का चयन करता हैं। इस प्रकार एक वैद्य द्वारा निर्मित औषधि भावों से भावित होकर रोगी के लिए अमृत का कार्य करती हैं।जिसमे एक मृत व्यक्ति को भी पुन जीवित करने की क्षमता एक वैद्य रखता है ऐसा हमारे शस्त्रों में निहित हैं।
आज एलोपैथिक चिकित्सा में विभिन्न रोगों को शमन करने की अपेक्षा उन्हें और अधिक असाध्य बनाकर दूसरे अनेक रोगों को उत्पन करने की बातें सामने आती हैं। इस चिकित्सा में विभिन्न प्रकार के एंटीबायोटिक्स ,स्टेरॉइड्स ,एंटी इंफ्लामेट्री का प्रयोग धड़ल्ले से किया जा रहा हैं जिसके कारण साधारण नजला ,निमोनिया ,ऐसिड, गैस के रोगी इलाज करवा कर हार्ट पेशेंट , किडनी रोगी , ब्रेन हेमरेज ,शुगर जैसी बड़ी बिमारियों के शिकार होते जा रहे हैं।
औषधि देने वाला व् निर्माण करने वाला दोनों अलग -2 होने के कारण भावों के आभाव में रोगों का उचित शमन नहीं होता हैं। जब निर्माता एवं औषध दोनों एक ही हो तब रोगों को समूल नष्ट किया जा सकता हैं। च्यवन ऋषि द्वारा बनाई गयी औषधि व् उसका खुद सेवन करके बुढ़ापे में यौवन को प्राप्त किया।
महाभारत काल में कुंती पुत्री भीम द्वारा रसायन का प्रयोग करके 100 हाथियों का बल प्राप्त किया था। ऐसी भावों के अंतर को समझते हुए नाड़ी वैद्य कायाकल्प के संस्थापक वैद्य सत्य प्रकाश आर्य द्वारा खुद औषध निर्माण भावों से भवित करके मन्त्रों से अभिमंत्रित करके रोगों पर प्रयोग किया जाता हैं। स्वयं नाड़ी परिक्षण करके प्रकृति अनुसार औषध चयन की व्यवस्था वैद्य जी द्वारा की जाती हैं।
पूर्व काल में आयुर्वेद इतना उन्नत था की उसमे योग ,नेचुरोपैथी , ज्योतिष ,पंचकर्म का गूढ़ ज्ञान था परन्तु आज के इस भौतिक युग में ज्ञान का लोप होता जा रहा हैं ,लोग पथ्य- पालना भूलकर रोगमय होते जा रहे हैं इसलिए पुनः इस विद्या के प्रति जान जागृति लेन हेतु हमने पाठ्यक्र्म को बनाया हैं जिसमे आप ऑनलाइन क्लासेस द्वारा इससे जुड़ सकते हैं।
अष्टांग आयुर्वेद के अंदर आने वाले 8 अंग हैं
- कायचिकित्सा
- कौमारभृत्य(बालतन्त्र )
- ग्रहचिकित्सा (भूतविद्या )
- उर्ध्वांगचिकित्सा (शालाक्यतंत्र )
- शल्यचिकित्सा ( शल्यतंत्र)
- अगदतंत्र
- जराचिकित्सा (रसायनतंत्र)
- वृषचिकित्सा (वाजीकरण तंत्र )